زیـــــر آوار خــــزان، ســــرمــای دی
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مانده بودم خشک و لاغر همچو نی
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هیچ نــادانستــم این بـــرفِ ظـــریف
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مر بخشکانـــد مرا هم شـــاخ و ریف
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یـــخ زده، تنهـــا، شکسته برگو بال
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در دلـــم امّـــیـــد بــــود از لایـــــزال
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منتـــظـــر بـــودم مـــرا آیـــد رحیـــل
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بــر ربـــایـــد از تـــنـــم رنجِ سَبیـــل
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ناگهـــان ابـــر بهـــاری ســـر رسیــد
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مژده رحـــمت بیامـــد: عیـــد عیـــد
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بـــرگ نـــو آمـــد بـــروی شــاخِ عور
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وه چه زیبا، خوش لباسی ای صبور
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مست شد بلبل به هر دشت و دَمَن
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سر بـرآورد از زمیـــن گل، یاســـمن
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شـــد برون نوگل ز هـــر شاخ نحیف
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برگ گـــل یابی چو ابــریشم، لطیف
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نوشکوفه شد برون از شاخِ خشـک
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نرمیاش بنگر،همی بوید چو مُشک
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چـــون نسیـــم نــوبهـــاری دلنـــواز
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بــانگ شـــادی آوریـــد انـــدر فــراز
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نغــمـــه نـــاب پرستــو بشــنـــویــد
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هم صفـای چشمه سـاران بنگریـــد
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حی شده هر سرزمین و خشکرود
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هـم عـنـــایـــت جـو تـــو از ربِّ ودود
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از میـــان خـــاک سبـــزه می دَمـــد
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از مــیـــان چوب غنچـــه مـــی دَود
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گر نباشد معجزه، چون است این؟!
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گـــر نـیـــابی معجـــزه گردی حـزین
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رستــخیـــز این طبیـــعت را ببیـــن
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دل تهی دار از نفاق و خشم و کیـن
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دل فـــرو شویـــیـــم از زنگـــارِ دی
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تـــا برآیـــد سوی مـــان پیغـــامِ وی
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از حسد، از کینـه، از نفـــرت تهـــی
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تـــا ز او آوای "اِرجَـــع" بـــشـنــوی
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پرگشـــایی سوی آن اعلی بهشت
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همنشینگردیتو با خوبانسرشت
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